तेज, क्षमा, धृति (part 2)

 तेज, क्षमा, धृति ये तीन गुण मनुष्य को सत्त्वगुणी बनाते हैं।


पहला है तेज माने ओजस। जिसके जीवन में कुछ तपस्या होती है, कुछ संयम होता है, जो मंत्रजाप करता है, आसनों का अभ्यास करता है, अनुशासन में रहता है, उसमें श्रेष्ठ ओज निर्मित होता है। जैसे अग्नि कुंड में अग्नि जलाते हैं तब अग्नि तो कुंड में जलती है, पर उसका ताप आसपास बैठे सब लोगों को लगता है। ऐसे ही जब आप तपस्या करते हैं, तो आपकी साधना से तेज उत्पन्न होता है। इस तेजरूपी अग्नि में मनुष्य के सारे दुर्गुण जलकर भस्म हो जाते हैं।


सारे दुर्गुण जलकर भस्म हो जाते हैं। बाहर के अग्नि कुंड में आग जलाना आसान है, लेकिन अपने ही मन को यज्ञ कुंड बनाकर उसमें वैराग्य की ज्वाला भड़काना, यह एक तपस्या है। सुबह उठना एक तपस्या है, मंत्रजप करना एक तपस्या है, प्राणायाम करना एक तपस्या है। जीवन में कुछ आवश्यक नियमों का पालन करना जरूरी होता है। जैसे अहिंसा, जीवन में किसी की काया, वाचा या मन से हिंसा न करना। इसके लिए कुछ उपाय करने जरूरी हैं।


दान करना भी एक तपस्या है। आप दान तभी कर सकोगे, जब आप लोभ को छोड़ दोगे। जब आप स्वार्थ के लिए दान करते हो, तो आप रजोगुणी हो जाते हो। निष्काम होकर दान करना सत्वगुणी है। यह शरीर मरणधर्मा है। इसने एक दिन जाना ही है। इसलिए अपने ही अंदर यर्थाथ को ढूंढने के लिए साधना करिये। साधना करते-करते तेज उत्पन्न होगा। तेज माने प्रकाश। यह जो तपस्या का प्रकाश है, यह आपके अंदर क्षमा के गुण को सहज ही उत्पन्न कर देगा। धृति- सुने हुए ज्ञान को चित्त में धारण करने की शक्ति को धृति कहते हैं। मान लो, मैंने आपको कोई बात बतायी, पर आप ने ध्यान से नहीं सुनी, तो फिर उस बात की आपके चित्त में आपकी धृति नहीं बन पायेगी क्योंकि वह आपकी स्मृति में ही नहीं उतर पायी। स्मृति में इसलिए नहीं उतर पायेगी क्योंकि आपको समझ ही नहीं आई। समझ इसलिए नहीं आई क्योंकि आपकी बुद्धि का बल्ब बहुत छोटा है। जिसकी बुद्धि तमोगुणी है, उसका तो समझो जीरो वॉट का बल्ब है। उसको बात भी वही समझ आयेगी जिसमें उसका कुछ स्वार्थ हो, जिसमें उसकी कामनाओं की पूर्ति होगी, वही बात उसे समझ आयेगी।


हमें अपनी बुद्धि में समझने की क्षमता को विकसित करने का प्रयास करना चाहिए। जिस विषय के प्रति मन एकाग्र हो जाता है, उसी की धृति बन पाती है। मन एकाग्र उसी का होगा जिसके चित्त में द्वन्द्वऔर उद्वेग नहीं है। ऐसा व्यक्ति कर्म तो सारे करेगा, लेकिन ममता रहित होकर करेगा। हम अगर हर कर्म विवेक से, बुद्धि से करने लग जाये, तो हमारे अंदर सत्वगुण अपने आप आने लग जायेगा। अपना हर किया हुआ कर्म ईश्वर को अर्पित करें और उसकी मरजी को स्वीकार करें। ऐसा न हो कि भोजन अच्छा बना तो मैंने बनाया और अच्छा नहीं बना तो ईश्वर की मर्जी।


तेज, क्षमा, धृति उसी के अंदर आयेंगे जिसके अंदर सत्य, अहिंसा, प्रेम और दया है। जिसके अंदर मद नहीं, गर्व नहीं, अभिमान नहीं। हम अपने मन का शीशा अगर साफ रखेंगे, तो किये गये कर्म हमें बांधोंगे नहीं। लेकिन अगर हम हर कर्म अहंकार से करेंगे, तो किया गया हर कर्म हमें बांध देगा। फिर हर कर्म का फल हमें ही भोगना पड़ेगा। जो कर्त्ता है, वही भोक्ता भी बनता है। हम अगर राग-द्वेष करेंगे, ममता करेंगे, आसक्ति करेंगे, तो दिल हमारा ही जलेगा। यही कर्म का सिद्धान्त है। कर्म का फल हमारा अपना ही मन देता है, कोई दूसरा नहीं। होश से किया गया हर कर्म सन्तोष देता है। होश से खाओगे तो जीभ नहीं कटेगी। ऐसे ही होश से कर्म करोगे तो, तो कर्म के बंधन में बंधोगे नहीं।


ज्ञान श्रवण के बाद जनक घर-बार छोड़कर साधु नहीं हो गये थे। वे राजा थे, लेकिन राज-पाट ने उनको बांधा नहीं था क्योंकि कर्म करके भी वे अकर्ता बने रहे और चूंकि अकर्ता थे इसलिये अभोक्ता भी हो गये। हम ममतारहित हो जायेंगे, तो चिन्ता से बच जायेंगेमान की चाह करेंगे तो अपमान ही मिलेगाअगर अपमान हो भी जाये, तो धृति, क्षमा और दया इन गुणों को याद करें। एकाग्रता जब तीव्र होती है, तो जिसका स्मरण किया, वही मन के सामने प्रगट हो जाता है।


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