वेदों का ज्ञान की श्रेष्ठ है part 2

... स्वामी शंकराचार्य का यह सिद्धांत वेद शास्त्रों के अनुकूल, गुरुओं की वाणी और आत्मज्ञों के अनुभवों के . अनुरुप है इसलिए ‘ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या', 'तत्त्वमसि', घमास, और 'अहं ब्रह्मस्मि' ही ज्ञान है । इसके विपरीत जो कोई भी उपदेश देता है, वह स्वयं ही पथ भ्रष्ट है । गुरु अर्जुन देवजी की वाणी 'सुखमनि साहब' वेदान्त की बहुत अच्छी पुस्तक है ईश्वर भक्ति, ज्ञान, जीव ब्रह्म एकता का बड़े सरल रूप से व्याख्यान किया है।


ब्रह्म में जन, जन में ब्रह्म,


एक ही आप नहीं कछु भ्रम


निर्गुण आप सर्वगुण भी ओही,


कलाधार जिन सगली मोही ।


अपने चरित प्रभ आप बनाए,


अपनी कीमत आपे पाए


हर बिन दूजा नाहीं कोई,


सर्व निरन्तर एको सोई ॥


महात्मा बुद्ध ने कहा कि शून्य ही संसार रूप होकर दिखाई देता है, जो कि असंभव है । वेदान्त कहता है कि सत् ब्रह्म ही जगत रूप में दिखाई देता है । ब्रह्म जगत दोनों सत् है केवल जगत पदार्थो के नाम रूप मिथ्या है । सत से सत ही उत्पन्न होता है । सब ब्रह्म ही ब्रह्म है, चेतन ही चेतन है। इसमें यह नाम रूप, संसार कल्पित है । ब्रह्म ही संसार रूप में माया द्वारा अपना आप प्रकट कर रहा है । माया के इस कार्य को न सत् कहा जा सकता है और न ही असत् । इसीलिए इसे सत् असत् से विलक्षण 'मिथ्या' कहना पड़ता है । सत् की व्याख्या शास्त्रों ने की है - 'त्रिकालाबाध्यं इति सत्यम्' अर्थात जो भूत, भविष्य और वर्तमान में एकसार विद्यमान रहे ; और तीनों अवस्थाओं में जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति में भी विद्यमान रहे । परन्तु यह दृश्य जगत इस कसौटी पर पूरा नहीं . उतरता । इसलिए इसे मिथ्या कहा गया है । गुरु नानक देवजी ने भी कहा है – 'दृष्टमान है सकल मथैना'


परन्तु ब्रह्म (आत्मा) जो दृष्टा रूप में विद्यमान है, वह इस कसौटी पर पूरा उतरता है । यह तीनों कालों और तीनों - अवस्थाओं में अपने होने का साक्षी भाव से प्रत्यक्ष प्रमाण दे रहा है । काल और अवस्थाएं बदलती हैं पर यह सदा एकसार रहता हुआ उनके परिवर्तन और रहने, न रहने की गवाही देता है । यह इनमें निर्लिप्त और निर्विकार रहता है । इसलिए यही सत् है, यही सबका अधिष्ठान है । यही सबका अपना आप है और इसके ज्ञान को वेद शास्त्रों द्वारा जानकर मनुष्य का जन्म-मरण समाप्त हो सकता है । इसके अतिरिक्त और कोई साधन नहीं । सर्प के मिथ्या भ्रम को दूर करने के लिए रस्सी का ज्ञान ही एक मात्र इसकी निवृत्ति का साधन है।


इस प्रकार श्रुत शब्द योग या महात्मा बुद्ध आदि महात्माओं के साधन अन्तःकरण की शुद्धि के लिए तो औषधि का काम दे सकते हैं । परन्तु आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए तो वेद उपनिषदों का ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है । यही उचित मार्ग है । इसलिए साधक को कर्म, उपासना, योग आदि करने के बाद अपने आत्म स्वरूप सच्चिदानन्द ब्रह्म का ज्ञान ही प्राप्त करके निर्वाण प्राप्त करना चाहिए । जो कि जीवन मुक्ति और शरीर शान्त हो जाने पर विदेह मुक्ति के नाम से जाना जाता है । आजकल लोग जो अपने इस सनातन वैदिक मार्ग को छोड़कर नए नए मत मतान्तरों के पीछे लगे हुए हैं, यही उनके दुखी होने का कारण है।


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