भारत अध्यात्मिक देश के सिस्टम को मजदूरों का कष्ट क्यों नहीं नज़र आ रहा
देश में कोरोना लॉकडाउन-3 का समय चल रहा है, देश में हर तरफ जान बचाने के लिए अजीब खामोशी व्याप्त है। लेकिन यही खामोशी लगातार देश के मजदूर वर्ग की अनमोल जिंदगियों पर भारी पड़ रही है। लॉकडाउन के चलते अपनी रोजीरोटी व जमा-पूंजी गंवा चुके देश के शिल्पकार मजदूरों पर नाकाम व्यवस्था व लाचार सिस्टम की जानलेवा मार पड़ रही है, देश के सिस्टम में व्याप्त अव्यवस्था के चलते उन बेचारों की अनमोल जानें जा रही हैं। लेकिन अफसोस बेचारे गरीब लाचार जिंदा मजदूर की जिंदगी का देश के सिस्टम में कोई मोल नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य से मरने के पश्चात सरकार के द्वारा उनको दी जाने वाली मुआवजे की धनराशि सरकार के खजानों में मौजूद है।
देश में लॉकडाउन की वजह से रोजगार खत्म होने के चलते बेहद परेशान मजदूर भूखे-प्यासे तिल-तिल कर मरने के लिए मजबूर हैं, सिस्टम धृतराष्ट्र की तरह चुपचाप महलों में बैठकर मजदूरों पर अत्याचार होता देख रहा है। सिस्टम के द्वारा मजदूरों के लिए लॉकडाउन के लगभग 50 दिन बीतने के बाद भी कोई अच्छी व्यवस्था नहीं बन पा रही हैं। किंतु उनके मृत शरीर को लाने की व्यवस्था सरकार के द्वारा की जा रही है, मरने के बाद उनकी जान का मोल लगाया जा रहा है। जिस तरह से महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 8 मई के तड़के दुर्घटना में मजदूर मारे गये थे, उसके बाद भयंकर आपदा के समय में भी देश में राजनीति चरम पर है, जिस तरह से कुछ मजदूरों का एक दल अपने घर मध्य प्रदेश जाने के लिए महाराष्ट्र के जालना से 60 किलोमीटर दूर भुसावल रेलवे स्टेशन पर श्रमिक स्पेशल ट्रेन पकड़ कर अपने घर जाने के लिए निकला था, तो उन बेचारे लाचार मजबूर 16 मजदूरों की यह यात्रा मालगाड़ी की चपेट में आने के कारण जीवन की अंतिम यात्रा बन जायेगी, शायद किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। इस बेहद दर्दनाक घटना के घटित होने के बाद देश में मजदूरों के हितों के नाम पर मजदूरों का हितैषी बनने के लिए राजनीतिक दलों में राजनीति बहुत तेज हो गयी है।
लेकिन इन बेचारे लाचार जिंदा मजदूरों के लिए शायद हमारे देश के कर्ताधर्ताओं, सत्ता के शीर्ष पर उनकी वोटों के बदौलत बैठे राजनेताओं व सिस्टम के पास उनका दुख दर्द व जीवन यापन में आ रही दुश्वारियों को समझने का वक्त नहीं था, आज वही सारा सिस्टम उनके लिए घड़ियाली आँसू बहा रहा है|
इन मजबूर मजदूरों की हालत बहुत दय्नीय है|एक अच्छे नागरिक होने के नाते और अपना धर्म समझते हुए मैंने खुद अपनी द ओम चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा दिल्ली के अलग अलग प्रातो में जा कर इन मजदूर भाइयो के परिवारों को राशन,तेल , साबुन की मदद पहुंचाई है| मेरे पूछने पर उन्होंने बताया की वे पुलिस के डंडो के डर से खाना लेने बहार नहीं निकलते और घर पर खाने को कुछ है नहीं | ऐसे में दिल्ली सरकार को सब से पहले इन ध्याड़ी मजदूरों के लिए जो रोज़ रोज़ी रोटी कमाते हैं उन की खास मदद करनी चाहिए थी| वे आज मजबूरी में अपने घर वापसी के लिए भूख से परेशांन पैदल ही घर को निकल पड़े हैं| बड़ा ही दुखद दृश्य है जो सडको पर आज 50 दिन के लॉक डाउन के बाद सडको पर नज़र आ रहा है|
कोरोना जैसी भयावह महामारी के समय में आज सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि भारत जैसे सांस्कृतिक और अध्यात्मिक देश के सिस्टम को जब कोई मजदूर जिंदा शहरों से वापस घर जाने के लिए निकलता है तब उसका कष्ट नजर क्यों नहीं आता है। मजदूर सड़क मार्ग पर नजर आता है तो उसको पुलिस मारती है, रेलवे लाईन या अन्य वैकल्पिक मार्गों पर जाता है तो उसको उस बेहद कठिन मार्ग की दुश्वारियां और मजदूर लाचारी मारती है। जिस तरह से आपदाकाल में मजदूरों की जिंदगी पर उनकी मजबूरी लाचारी गरीबी भारी पड़ने की खबरें देश के अलग-अलग भागों से आ रही हैं, वह देशहित में व समाजहित में बिल्कुल भी उचित नहीं है, आने वाले समय में उसके दूरगामी परिणाम नजर आयेंगे, हम महानगरों में काम करवाने के लिए मजदूरों के लिए तरस जायेंगे। जिस तरह से कोई मजदूर साईकिल पर जाते हुए दम तोड़ रहा है, कोई पैदल जाते हुए दम तोड़ रहा है, वह उनकी बेबसी व हमारे देश के सिस्टम की खामी को उजागर कर रहा है। अपना घरबार छोड़कर रोजी-रोटी की तलाश में अपने घरों से दूर आकर देश के विकास में बहुमूल्य भागीदारी निभाने वाले मेहनतकश मजदूर अब व्यवस्था व सिस्टम की लापरवाही और जीवन बचाने की लाचारी के चलते दिन-प्रतिदिन मजबूर होते जा रहे हैं।
सरकार को कन्फ्यूजन से बाहर निकलना होगा कि मजदूर को रोकना है या घर वापस भेजना है, रोकना है तो उनकी रोजी-रोटी का इंतजाम अच्छे से करना होगा और घर वापस भेजना है तो निशुल्क रेल सेवा को तैयार करना होगा। तब ही पैदल, साईकिल, रिक्शा, थ्रीव्हीलर, ढेली व मालवाहक वाहनों में छिपकर जान की बाजी लगाकर श्रमिकों का जाना रुकेगा।
अगर हमारे देश के नीति-निर्माता चाहें तो हमारी रेलवे की क्षमता इतनी है कि वो कुछ दिनों में ही सारे मजदूरों को वापस उनके घर पहुंचाने की क्षमता रखती है। बस जरूरत है तो केवल सरकार के स्तर पर दृढ इच्छा शक्ति की है और देश के नीति-निर्माताओं के स्तर पर समय से निर्णय लेने की क्षमता की है। अगर सरकार के स्तर पर समय से यह फैसला हो जाता तो केवल कुछ ही दिनों में रेलवे के द्वारा सारे मजदूरों को घरों तक पहुंचाया जा सकता था और देश में मजदूरों की घबराहट के चलते बने आपाधापी के माहौल से बचा जा सकता था। वैसे भी आज के समय में सारी ट्रेन खाली खड़ी है और सरकार चाहे तो जो सिस्टम रोज भारी संख्या में लोगों को ढोता था उसी रेलवे के द्वारा मजदूरों को सोशल डिस्टेंसिंग बनाते हुए उनके गंतव्य स्थल तक बेहद आसानी से पहुंचाया जा सकता है। वैसे भी कोरोना काल में ट्रेन के अलावा देश में परिवहन के बाकी सभी साधन फिर भी बहुत ज्यादा खतरों से भरे हैं। इसलिए अभी भी सरकार को उहापोह की स्थिति से बाहर निकल कर मजदूरों के बारे में समय रहते स्पष्ट रणनीति बनानी चाहिए। सरकार को इस कन्फ्यूजन से बाहर निकलना होगा कि मजदूर को रोकना है या घर वापस भेजना है, रोकना है तो उनकी रोजी-रोटी का इंतजाम अच्छे से करना होगा और घर वापस भेजना है तो निशुल्क रेल सेवा को तैयार करना होगा। तब ही पैदल, साईकिल, रिक्शा, थ्रीव्हीलर, ढेली व मालवाहक वाहनों में छिपकर जान की बाजी लगाकर श्रमिकों का जाना रुकेगा। नहीं तो कोरोना के चलते उत्पन्न आपदाकाल में अपनी लाचारी मजबूरी व गरीबी से परेशान देश के शिल्पकार मजदूरों के साथ आये दिन तरह-तरह के दर्दनाक हादसे घटित होते रहेंगे और सरकार बाद में मृतकों के परिजनों को मुआवजा धनराशि बांट़ती रह जाएगी |