माँ की ममता और प्रेम

बिन घरनी, घर भूत का डेरा



इजराइल में एक बहुप्रचलित कहावत है कि भगवान सभी जगह प्रत्यक्ष मिल नहीं सकता इसलिए अपने रूप में उसने 'माँ' बनाई कि जो भी, जब चाहे उससे मिल ले।'


माँ होना स्त्री का केवल परम वैभव या उसकी चरम उपलब्धि ही नहीं, प्रकृति के प्रति परमात्मा की ममता और उसके वात्सल्य का विग्रह होना भी है| कन्या से माँ तक की उसकी जीवनयात्रा केवल सृजनात्मक है, केवल संस्कारात्मक है, मनुष्य को मानुषभाव से भावित करना है, उसको उसके जन्म और जीवन का मर्म बताना-सिखाना है। संतान को जन्म देना यदि नारी की स्वाभाविक शारीरिक प्रक्रिया और  प्रकृति-पुरुष के मिलन का परिणाम है तो जीवन का सुन्दर रूप मा का साधना, तप, त्याग, सवदना, स्नह आर सर्वस्व समर्पण का परिणाम। नारा, जगत निर्माण की मूल धुरी और उसक मूल चक्र है। इस सृष्टि और संसार का वह मूलाधार है।


सर्वशक्तिमान श्री परमेश्वर ने ‘एकोऽहं ह बहुस्यामि', अर्थात् एक से अनेक हेने का संकल्प किया तो उसे भी इसके लिए सर्वप्रथम नारी के समक्ष प्रणत होना पड़ा। संसार की संरचना और मानव सृष्टि के सृष्टि क लिए उस अनादि, अनन्त ने नारी को  आद्यशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया। उसमें जननी की जनशक्ति, माँ की ममता ता तथा वात्सल्य की  भी प्राण-प्रतिष्ठा की । उसने स्वयं भी समय-समय पर उसकी कोख और गोद का आश्रय लिया। यदि जननी की कोख और माँ की गोद ने परमात्मा के आग्रह को अस्वीकार कर दिया होता तो फिर 'परित्राणाय साधुना, विनाशाय च दुष्कृताम्' और 'धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे' की उसकी अवतार परम्परा प्रारंभ ही न हुई होती। महात्मा मनु ने 'यंत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवतः' का मंत्रवत् श्लोक लिखकर देवताओं का निवास स्थान भी निश्चित कर दिया।



 देश के लोकधुरीणों ने 'बिन घरनी, घर भूत का डेरा' की अनुभूति लोकोक्ति की रचना कर घर-परिवार को परिभाषित किया है कि घर तो 'घरनी' से ही बनता है। यदि घरनी अर्थात् स्त्री या घरवाली न हो तो घर, घर नहीं, ईंट गारे, लोहे, चूने या मिट्टी निर्मित मकानवत शमशान के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। पत्नी के बिना परिवार कैसा?



माँ के बिना संसार और स्नेह कैसा? 


इस जनसामान्य के चरित्र की रचना भूमि और इसकी प्रयोगशाला है परिवार। उस प्रयोगशाला की वैज्ञानिक नारी है। वह जैसी संतानों का निर्माण करती है समाज वैसा ही बनता है। वह जैसे संस्कारों से अपनी संतानों को संस्कारित करती है वैसी ही सामाजिक सांस्कतिक और राष्ट्रीय समझ बनती है |


महिला अर्थात् माँ से प्राणवत् जुड़े मनुष्य के लिए अनाचार, दुराचार, विश्वासघात, झूठ, फरेब, छल-कपट, और भ्रष्टाचार अजाना होता है। सेवा, समर्पण, त्याग उसकी सहज प्रवृत्ति होती है। अपने दूध की घुटटी से इन सदगणों की सष्टि करना नारी का, माँ का सहज स्वभाव ही नहीं, श्री परमेश्वर द्वारा प्रदत्त भी है।


माँ की चूक कालांतर से समाज और राष्ट्र जीवन की एक हूक बन जाती है कि 'काश! हमारी माताओं ने अपनी संतानों की ओर ध्यान दिया होता तो हमें ये दुर्दिन न देखने पड़ते। नारी की गति केवल परिवार की चौखट के अंदर तक ही सीमित नहीं है। 'चौके' से 'चौक' तक की उसकी भूमिका और उसका दायित्व सुनिश्चित है।


केवल पाकशास्त्र ही नहीं, त्याग, तपस्या, साधना, ज्ञान-विज्ञान और युद्ध-भूमि में भी उसकी प्रतिभा और उपलब्धियों का अछोर इतिहास है। महिलाओं ने अपने दूध से ही नहीं, रक्त से भी मनुष्य का निर्माण किया और इतिहास रचा है| नेतृत्व उसका जन्मजात गुण है। वह पराश्रयी नहीं. आश्रयदात्री है। उसे कंगालों की तरह याचकों की कतार में खड़ा करने का प्रयास उसको अपमानित करना है। हमारे देश की परंपरा और संस्कृति ने नारी को आजीविका कमाने के संताप से सदा मुक्त रखा कि 'माँ! तू एकात्म और एकाग्रमन होकर निश्चिन्त भाव से अपनी संतानों को संस्कारित करके उन्हें मनुष्य बना। तुम्हारे 'योगक्षेम' की व्यवस्था तुम्हारे पिता, पति और तुम्हारी संतानें करेंगी। भोजन, वस्त्र और छत की चिंता न करके तू अपनी संतानों के लिए ज्ञान-विज्ञान, अध्ययन, अध्यापन, पालन-पोषण और संस्कार की व्यवस्था कर। संस्कृति को समृद्ध कर। प्रज्ञा-प्रवाह को गति प्रदान करती रह।' हमारी इस भारतीय संकल्पना और सामाजिक तथा पारिवारिक संरचना के पश्चिम के भोगवादियों ने 'नारी की गुलामी' का नाम दिया उन्हें चूल्हे-चौके में कैद करके रखने का हमारे देश पर आरोप लगाया। हमारे यहाँ भी कुछ भ्रमितों ने असभ्य तर्ज पर 'नारी मुक्ति' आंदोलन का सूत्रपात कराया। हमारी 'माँ' को कर्मचारी बनाने का षड्यंत्र किया जा रहा है। हमारे यहाँ तो वह अग्रणी थी और जो अग्रणी है उसे पुरुषों की बराबरी में खड़ा करने का अभियान चलाकर पदच्युत किया जा रहा है।


सौ प्रतिशत की स्वामिनी को तैंतीस प्रतिशत की साँकल में बांध देने की नादानी की जा रही है। करुणामयी की करुणा को क्रूर और पाषाणी बनाने का हरसंभव प्रयास किया जा रहा है। कालक्रम से उत्पन्न हो गए विचारों को हिन्दू जीवन का यथार्थ और उसमें आ गई विकृतियों को संस्कृति मानने वाले लोगों की हमारे देश की स्त्रियों की ओर देखने की दृष्टि धुंधली ही नहीं, दूषित भी है। ये सभी 'राजनीतिक स्वार्थ के मोतियाबिंद' से पीडित है।


हमारे देश की महिलाओं को तथाकथित प्रगतिशील, अंधी पश्चिमी नकल और आधुनिक बनाने की होड़ में शामिल करके संपूर्ण राष्ट्र जीवन को प्रदूषित करने का नियोजित षड्यंत्र किया जा रहा है और हम हैं कि इस षड्यंत्र को सफल बनाने में सहयोग करके गौरव का अनुभव करते हैं


भारतीय नारी की महिमा, माँ का कर्म और भारत पर पश्चिमी भोगवाद के आक्रमण का संदर्भ समझे बिना न तो देश को वर्तमान संकट से बचाया जा सकता है और न उसके भविष्य को ही सुख, समृद्धि और सामर्थ्य की भूमि पर उतारा और उकेरा जा सकता है। भारतीय नारी और उसकी संतानों को भी उनके मूल स्वरूप का एहसास करना, उनका ईश्वरीय भाव और दायित्व बोध जागत करना सज्जनों का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। पति, परिवार, संतान. समाज. राष्ट और विश्व के बीच संस्कार और शक्ति सेतु भारतीय नारी का जागृत, सचेत और सक्रिय होना अत्यावश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है।


 


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