मरना प्राणियों की प्रकृति है
अब जिसने जन्म लिया है, एक न एक दिन तो वह अवश्य मरेगा ही। मनुष्य जब संसार में जन्म लेता है, तो मृत्यु के साथ समझौता करके आता है, मृत्यु कहती है देख तू संसार में तो जा रहा है, किन्तु एक बात का ध्यान रखना मैं जब तुम्हें बुलाऊँगी तो तुम्हें उसी समय आना होगा, एक क्षण की भी देरी तुमको नहीं करनी है|
मनुष्य ने कहा ठीक है, जब भी आप बुलाएंगी, मैं चला आऊँगा। इसलिए जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है और जिसकी मृत्यु होती है, उसका जन्म भी होता है। किन्तु जन्म के समय केवल जन्म को देखते हैं, उस समय जोर-जोर से ढोलकी बजाते हैं, नाचते हैं, गाते हैं, मिठाई बांटते हैं, उस समय यदि यह बात ध्यान में आ जाए कि यह एक दिन मरेगा, तो इतनी प्रसन्नता न होगी, अतः जन्म के समय से ही मृत्यु का ध्यान रहना चाहिए| जब किसी की मृत्यु समीप आती है, तो उसका स्वभाव और प्रकृति सर्वथा बदल जाते हैं। मरणासन्न मनुष्य जिन पूज्य पुरुषों के सामने सदा विनम्र बना रहता था, जो उसकी पूजा के योग्य उन्हीं का अनादर, तिरस्कारऔर उनकी निन्दा करने लगता है। देवताओं की पूजाअर्चना में भी उसका विश्वास उठ जाता है, आयु और ज्ञान में बड़े गुरुजनों एवं वृद्ध ब्राह्मणों का अनादर करने लगता है। बात-बात में माता-पिता, और पुरोहित का तिरस्कार करने लगता है। वह योगियों और ज्ञानियों के सत्कार विमुख हो जाता है। बुद्धिमान मनुष्य को मृत्यु के इन लक्षणों की जानकारी होनी चाहिए। जो व्यक्ति सुख-पूर्वक शरीर का त्याग करना चाहते हैं, और परमपद को प्राप्त करना चाहते हैं, वे प्रयत्न-पूर्वक इन लक्षणों का अध्ययन करें। इन चिन्हों को देखकर मनुष्य अपनी तथा दूसरों की मृत्यु का अनुमान कर सकता है। मृत्यु के पास आने पर मनुष्य को घबराना नहीं चाहिए। सावधानी से मृत्यु-काल की प्रतीक्षा करनी चाहिए और अपना मन परमात्मा के चिन्तन में लगाना चाहिए। भय और चिन्ता की कोई बात ही नहीं है। आप प्रभु से मिलने जा रहे हैं, जो सदा-सदा से आपसे गले मिलने के लिए बाहें फैलाए हुए है।
आत्म-चिन्तक मृत्यु को पास आया जानकर डरता नहीं, बल्कि प्रसन्न होता हैक्योंकि इस मिट्टी-पानी से बनी हुई शरीर की परत टूटते ही उसे परम आनन्द की प्राप्ति होती है। कबीरदास जी की बहुत सुन्दर उक्ति है
जिस मरने से जग डरे मेरे मन आनन्द। मरने ही से पाइये पूर्ण परमानन्द॥ किसी भी व्यक्ति को परम आनन्द की प्राप्ति तो तभी होती है, जब वह परमात्मा का चिन्तन करते-करते इस देह का त्याग कर देता है। मृत्यु के लक्षण इसलिए गिनाए हैं, कि ये एक प्रकार के अरिष्ट हैं। ये एक वर्ष, दस महीने, आठ महीने, छह महीने, दो महीने या तत्काल फल देने वाले होते हैं। इनसे मिलने वाले फलों पर भी विचार करना चाहिए और उनका प्रतिकार करना चाहिए। मृत्युकाल आ जाए तो योगी को विचलित नहीं होना चाहिए। अपने घर, कुटुम्ब-परिवार की आसक्ति - को त्याग देना चाहिए। घर में जो ज्यादा अपना व्यक्तिगत सामान भरा हो. ज्यादा वस्त्राभूषण हों, उन्हें अपने नाते रिश्तेदारा. 1. * को, पुत्रवधुओं को बांट देना चाहिए| सेवकों का भी ध्यान रखना चाहिए, उन्हें भा कुछ देना चाहिए। ये वस्तुएं तो पार्थिव पाथिव हैं, इधर से उधर होती रहती हैं, आज आज हमारी हैं, कल किसी दूसरे की हो जाएंगी। । कश्मीर की एक वृद्ध ब्राह्मणी थी, अस्सी पचासी वर्ष की उम्र रही होगी, आने वाली ला पीढ़ी घर में वृद्धों का आदर नहीं करती, उनका प्रम मकान-दुकान, वस्त्र, आभूषण, सोना, सम्पत्ति को लेकर होता है। लोग कहते हैं बूढ़े या बूढ़ी को किसी आश्रम में छोड़ दिया जाए। वह जिये या मरे इससे कोई प्रयोजन नहीं। उस बेचारी वृद्ध अबला को हरिद्वार के एक आश्रम में छोड़ दिया। घरवालों ने और सब तो ले लिया था और लिखवा लिया था, केवल उसके गले में सोने की मोटी-सी जंजीर रह गई थीकुछ दिनों के पश्चात् उसकी पौत्री उससे मिलने को आई। पांच-सात मिनट __ औपचारिकता की बातें हुई, वह लड़की दस-बारह साल की रही होगीमिल-भेंटकर जाते समय अपनी दादी से बोली-दादी! जब आप मरोगी तो यह सोने की चैन मेरे को देकर जाओगी न? दादी! मेरे को ही देना यह चैन, और किसी को नहीं देना|
ये संसार के दृश्य हैं। ऐसे स्वार्थी होते हैं दुनियावी लोग। इन सब बातों का ध्यान रखते हुए, इन नाम रूपात्मक वस्तुओं की आसक्ति को त्याग देना चाहिए। मन में " वैराग्य धारण करना चाहिए। किसी एकान्त निर्जन स्थान में चले जाना चाहिए|