मैंने भगवद् गीता से क्या सीखा? (भाग १)


श्रीमद् भगवद् गीता का ज्ञान एक अद्भुत, अति उत्तम, सर्वश्रेष्ठ और पवित्र है; जो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से मानवता को दिया। जिस प्रकार भगवान युग-युग में अवतार लेते हैं, उसी प्रकार कालानुसार मानवता को ज्ञान भी देते हैं| कालान्तर में जब यह ज्ञान लुप्त हो जाता है, तो उसका ज्ञान किसी न किसी निमित्त द्वारा, भगवान श्रीकृष्ण पुनः देकर कृपा करते हैं| महाभारत के युद्ध के आरम्भ में, जब अर्जुन को मोह और विषाद उत्पन्न होते हैं; तो भगवान श्रीकृष्ण उसका उपचार ज्ञान के उन सूत्रों द्वारा करते हैं, जिसका सारांश इस प्रकार से है।


1. आत्मा अविनाशी और सनातन है। आत्मा अविनाशी और सनातन होने के कारण, असंख्य शरीर धारण करता है| जिस प्रकार मनुष्य नित्य पुराने वस्त्र उतारकर नये वस्त्र धारण करता है। उसी प्रकार जीवात्मा पुराने और जर्जर शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करता है। आत्मा, अमर, - नित्य, अक्षर, अविकारी, सनातन, पुरातन और अविनाशी है। इस तरह से जीवन में निर्भय होकर जीने का प्रथम मूल सूत्र, आत्म ज्ञान के रूप में कहा है।


2. भगवान श्रीकृष्ण ने इस गीता-सागर के दूसरे अध्याय में, अन्य एक अति सुन्दर मनोवैज्ञानिक सूत्र कहा है| इसमें स्थिर बुद्धि (Stable Mind) और स्थित प्रदत (Steady wisdom) के लक्षण कहे हैं। जिसने सर्व कामनाएं त्याग दी है, जो आत्मा से सन्तुष्ट है, जो सुख और दुःख में समान है, जिसके सर्व राग भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं और जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि के वश में है; वह स्थित प्रज्ञ और स्थिर बुद्धिवाला है।


3. कर्म का सिद्धान्त पूर्व में और आधुनिक काल में मूलतः श्रीमद् भगवद् गीता से ही लिया गया है।


कर्मणि एव अधिकारः ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुः भूः मा ते संगः अस्तु अकर्मणि॥ गीता अध्याय 2 - श्लोक 40॥


कर्म करना हमारे अधिकार में है, पर फल प्राप्त करने में हम स्वतंत्र नहीं हैं। कर्म के तीन भागों में यानि विचार (thought) वाणी (Speech) और क्रिया (action) इनमें हमें पूर्ण स्वतंत्रता दी गयी है पर फल कर्मों के अनुसार ही निर्धारित होता है। कर्म फल की इच्छा का त्याग ही कर्मयोग का मूल मंत्र है। कर्मयोग में भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ निमित्त कर्म करने को कहा है। यज्ञार्थ (निस्वार्थ सेवा) के निमित्त किये गये कर्मों के अतिरिक्त, अन्य कर्मों में लिप्त, मनुष्य कर्म बन्धन से बन्धता है। यज्ञ के हेतु वह कर्म है; जो निष्काम कर्म हैं, जो अहंकार और स्वार्थ रहित हैं और जो समस्त प्राणियों के हित में किये गए हैं। ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आरम्भ में यज्ञ के सहित रचा और कहा, यज्ञ से तुम वृद्धि (Growth) को प्राप्त हो। यज्ञ से आप देवताओं को उन्नत करो और देवता आपको उन्नत करें इस प्रकार एक-दूसरे को उन्नत करते हुए कल्याण प्राप्त हो|


इसी कारण हमारी संस्कृति ऋण तथा कृतज्ञता (Gratefulness/ Thanksfulness) प्रधान हुई। यह ऋण हैं मातृ-ऋण, पितृ-ऋण, देव-ऋण, गुरु-ऋण, समाज-ऋण तथा राष्ट्र-ऋण इत्यादि। कर्मयोग में भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म करते हुए यज्ञ आधारित जीवन जीने का लक्ष्य दिया है


सम्पूर्ण प्रकृति इस सृष्टिचक्र के विकास में लिप्त है| यज्ञ समान किये हुए कार्यों के द्वारा जो भोग उत्पन्न होते हैं उस का यथायोग्य वितरण के सिद्धान्त के अनुसार कार्यान्वित हो तो यह किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए अति उत्तम आदर्श होगा। कर्म के इस योग का उपयोग कई संस्थानों में और प्रबंधन विषयों में भी लिया जा रहा है।


4. भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी प्राप्ति के मोक्ष के परमगति और कर्मबंधन से मुक्त होने के कई मार्ग कहे हैं।


अ. वह मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न ही किसी से आकांक्षा अपेक्षा रखता है। ऐसा ज्ञानी नित्य सन्यासी समझने जैसा है। क्योंकि राग द्वेष आदि द्वन्द्वों से विहीन मनुष्य सहज ही कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है।


इ. कर्मों से युक्त फल का त्याग करने वाला मनुष्य शान्ति को प्राप्त होता है और सकाम कर्म करने वाला मनुष्य कामना से प्रेरित फल में आसक्त होकर कर्म बंधन में बंधता है।


ई. ज्ञानीजन विद्या द्वारा सम्पन्न हुए ब्राह्मण में तथा गाय, हाथी, श्वान और चांडाल में समदर्शी होते हैं। अर्थात वे ज्ञानीजन सर्व जीवों में प्रभु के दर्शन करते हैं| ज्ञानवान, सर्वत्र वासुदेव है, ऐसा मानते हैं।


उ. जिस मनुष्य के सर्व पाप समाप्त हो गये हैं, जिसकी सब शंकायें ज्ञान के द्वारा शान्त हो गई हैं, जो सर्व प्राणियों के कल्याण में रत है और जिनका जीता हुआ मन परमात्मा के निर्मल भाव में स्थित है, ऐसे पुरूष ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होते हैं।


ऊ. जो मनुष्य इन पांच गुणों को धारण करते हैं वे परमात्मा को प्राप्त करते हैं|जो मनुष्य समस्त कर्त्तव्य कर्म परमात्मा के लिए करता है, जो ईश्वर के परायण रहकर उसे ही परम लक्ष्य मानता है|


 परमात्मा की एकीभाव और अनन्य भाव से निरन्तर भक्ति करता है, जो आसक्ति रहित है और जो सर्व प्राणियों से बैर रहित है ऐसे पांच गुणों को धारण करने वाला परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।


5. भगवान श्रीकृष्ण का आश्वासन है कि कोई भी कल्याणकारी और शुभकर्म करने वाला परूष लक्ष्य को प्राप्त करने से पूर्व ही असमय अन्तकाल को प्राप्त होता है। तो भी उसकी साधना व्यर्थ नहीं जाती। उस की आध्यात्मिक यात्रा अगले जन्म में वहां से आरम्भ होगी जहां से उस के द्वारा पूर्वजन्म में छट गई थी। भगवान श्रीकष्ण ने श्रीमद भगवद गीता में अनेक स्थानों पर पुर्नजन्म की पुष्टि की है।


6. इस पवित्र ग्रंथ में एक महत्वपूर्ण ज्ञान है। जो मनुष्य अन्तकाल में शरीर त्याग करने के समय मुझ परमात्मा (भगवान श्रीकृष्ण) को ही स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है वह मुझ परमात्मा को ही प्राप्त होता है। इस में कुछ संशय नहीं है। यह जानकर कितना सरल लगता  है अन्त समय में यदि प्रभु का नाम लेंगे तो प्रभु को ही प्राप्त कर लेंगे। परन्तु ज्यादातर प्राण त्यागने के समय मनुष्य इतनी भयंकर पीड़ा तथा वेदना में होता है और विस्मृत सा हुआ पड़ा रहता है। यह संभव नहीं हो पाता जब तक पूर्ण जीवन काल में निरन्तर स्मरण न किया हो और यह भी कैसे मालूम चले कि यह अन्त समय है? जो मनुष्य अन्त समय के जिस-जिस भाव को स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है वह मनुष्य उस भाव को अगले जन्म में प्राप्त होता है।


7. भगवान श्रीकृष्ण ने निम्नलिखित श्लोक में स्पष्ट किया है कि प्रकृति भगवान श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में चराचर सहित सर्व जगत की रचना करती है।


मया अध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते स चर अचर हेतना अनेन कौन्तेय जगत् चिपरिवर्तते॥ गीता अध्याय 9- श्लोक 10॥ यह बात सभी साधकों को और जिज्ञासओं को स्पष्ट हो जायेगी कि. प्रकति भी परमात्मा के नियंत्रण में है। 


8. भगवान श्रीकष्ण ने निम्नलिखित श्लोक में आश्वासन दिया है कि दुराचारी से दुराचारी का भी उद्धार हो सकता है। अगर वह परमात्मा की अनन्य भक्ति में संलग्न और दृढ़ निश्चयी हो सकता है|


अपि चेत् सुदुराचारः भजते माम् अनन्यभाक्। साधुः एव सः मन्तव्यः व्यवसितः हि सः॥ गीता अध्याय 9- श्लोक 30॥


                                                                                                             this article is subject to copy right


Popular Posts