मैंने भगवत गीता से क्या सीखा ?(भाग २)


भाग १ में हम ने श्रीमद्भागवत गीता के प्रथम आठ अध्याय का सार पढ़ा ,शेष भाग २ में पढ़ें|


9. भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्रीतिपूर्वक निरन्तर भजन करने वाले भक्तों को मैं वह बुद्धियोग देता हूं जिससे वे मुझ परमात्मा को प्राप्त होते हैं। ऐसे भक्तों के ऊपर कृपा करने के लिए अन्त:करण में स्थित हुआ ज्ञानदीप से मैं उनका अंधकार नाश करता हूं।


10. इस शरीर को क्षेत्र अर्थात कर्म क्षेत्र कहा है और इस क्षेत्र अर्थात शरीर को जानने वाला क्षेत्रज्ञ अर्थात आत्मा कहा है। जितने भी चर और अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं उन्हें प्रकृति और पुरूष अर्थात क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न जानो। जिस प्रकार पंखा और बिजली इन दोनों में एक भी न हो तो पंखा नहीं चल सकता उसी प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ इन दोनों में एक भी उपलब्ध न हो तो कोई भी रचना नहीं हो सकती।


जैसे एक ही सूर्य सर्वजगत को प्रकाशमय कर देता है वैसे ही एक ही आत्मा पूर्ण (क्षेत्र) शरीर को प्रकाशित (चेतना प्रदान) कर देता है।


11. प्रकृति से उत्पन्न तीन गुण सतो गुण, रजो गुण, और तमो गुण अविनाशी जीव आत्मा को शरीर से बांधते हैं। यह तीनों गुण मनुष्य को कर्म करने के लिए बाधित करते हैं। सम्पूर्ण पृथ्वी में, आकाश में या अन्य कही भी ऐसा कोई स्थान नहीं है जो प्रकृति के इन तीन गुणों से रहित हो|


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह त्रिगुणमयी मेरी माया अति दुस्तर है परन्तु जो मेरी अनन्य और निरन्तर भक्ति करते हैं वह इस मायारूपी संसार से तर जाते हैं अथवा इन तीनों गुणों को पार कर जाते हैं|


12. भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस शरीर में सनातन जीवात्मा का एक ही कार्य है इस प्रकृति में स्थित मन और इन्द्रियों को आकर्षित करता हैपूर्व जन्म के संस्कार किस तरह से वर्तमान जीवन को प्रभावित करते हैं इसके बारे में भी भगवान श्रीकृष्ण ने निम्नलिखित श्लोक में बहुत ही सुन्दर विवरण किया है:-


शरीरम् यत् अवामोति यसत् च अपि उत्कामति ईश्वर। गृहीत्वा एतानि संयाति वायुः गंधान् इव आशयात्॥ गीता अध्याय 15- श्लोक 8॥


जिस प्रकार वायु गंध को ग्रहण करके एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाती है वैसे ही जीवात्मा मृत्यु के पश्चात मन और इन्द्रियों को सूक्ष्म रूप से एक शरीर (जिस का त्याग किया है) से दूसरे शरीर (जिसमें प्रवेश करता है) में ले जाता है। इसी कारण एक ही परिवार और वातावरण में पले दो बच्चे अलग स्वभाव और व्यक्तित्व के होते हैं।


13. श्रीमद्भगवद्गीता में मनुष्य समुदाय को दो प्रकार कहा है। एक दैवी प्रकृति वाले ज्ञानी और दूसरे आसुरी प्रकृति वाले अज्ञानी। इन दोनों प्रकृति वाले मनुष्यों के लक्षण भी विस्तार से कहे गये हैं। काम, क्रोध और लोभ इन तीनों को नरक के द्वार कहा गया है। जो मनुष्य को अधोगति (पतन) में ले जाने वाले होते हैं। इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरूष अपने कल्याण का आचरण करता है। और परमगति को प्राप्त होता है।


14. मनुष्य की स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा निष्ठा भी तीन प्रकार की  होती है। भोजन यज्ञ तप और ज्ञान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं| बिना श्रद्धा से किये हुए यज्ञ और दान आदि शुभ कर्म असत् कहे गये हैं। जिन की न इस लोक में ही परलोक में कोई सार्थकता है अर्थात वे व्यर्थ और अर्थहीन हैं| इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण त्याग, ज्ञान, कर्म, कर्ता, घृति (धारण शक्ति) और सुख के भी तीन प्रकार अर्थात सात्विक, राजसिक और तामसिक कहे हैं।


15. अन्त में भगवान श्रीकृष्ण ने परम गोपनीय वचन कहे हैं- मुझ परमात्मा में मन लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा और भजन करो, मुझे नमस्कार करो, ऐसा करने से तुम मुझे ही प्राप्त करोगे। सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता का सार इस प्रकार कहा है- हे अर्जुन! सर्व धर्मो अर्थात सर्व कर्त्तव्य कर्मों को मुझ परमात्मा में परित्याग कर। तू केवल एक मुझ ईश्वर की शरण में आ जा। शोक मत कर। मैं तुझे समस्त पापों से अर्थात कर्म बंधनों से मुक्त कर दूंगा। जब पूर्णतया कोई परमात्मा की शरण में है, तो सर्व धर्म कर्म स्वतः शुभ होंगे इस के पीछे  बहुत ही सुन्दर मनोविज्ञान है और उससे भी श्रेष्ठ यह आत्मविज्ञान है। इस आत्मज्ञान से अर्जुन का मोह नष्ट हुआ। हम भी शरणागति से अपने जीवन का विषादृ समाप्त कर आनन्दमय और सार्थक जीवन की ओर अग्रसर हो सकेंगे।                          हरिओम् तत् सत्।


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