गीता में दैवी सम्पद् - अक्रोधः

अक्रोधः




हमारे संकल्प बड़े कमजोर हैं। बड़े दुर्बल हैं हमारे संकल्प। दिन में दस बार हम संकल्प करते हैं, दस बार इरादे करते हैं, दस बार उन्हें तोड़ते हैं। न तो हमारा मन स्थिर है, न हमारी बुद्धि स्थिर है, न हमारे इरादे स्थिर हैं। घड़ी के पेंडुलम की तरह हमारा मन डोलता रहता है। हमारी बुद्धि डोलती रहती है। हमारे संकल्प में कोई बल ही नहीं है, शक्ति ही नहीं है हमारे संकल्प में|



 


एक बार फकीर एक गांव से दूसरे गांव में जा रहे थे। मरियल सा आदमी उन्हें गाली देने लगा। रास्ते भर गाली देता गया। यदि वे जरा सा भी क्रोधित हो जाते, तो उस गाली देने वाले की खैर नहीं थी। हाथ-पैर ही नहीं तोड़ देते थे , वह बेचारा जान से भी हाथ धो सकता था| लेकिन उन्हें जरा सा भी क्रोध नहीं आया। रास्ते भर उसे जितना करना था, उसने उतना किया। गांव नज़दीक आया, तो वे खड़े हो गए| उन्होंने उस आदमी को कहा कि देख मित्र, जो गांव आ रहा है, इस गांव के लोग मुझे भगवान की तरह मानते हैं, अगर तू इसी तरह गाली देता रहा, मुझे भला-बुरा कहता रहा और किसी भी आदमी को पता चल गया, तो तुम्हारा अनिष्ट कर देंगे, अहित - कर देंगे, हो सकता है, तुम्हें मार भी दें| तुम्हें जो कुछ भी कहना हो, यहीं कह लो, मैं यहीं रुक जाता हूं। जब तक तुम जाने को नहीं कहोगे, मैं यहीं खड़ा हूं। तुम अपने मन का कचरा, कूड़ा, गन्दगी सब निकाल दो। मुझे कोई भी फर्क नहीं पड़ता है। वह आदमी उनके चरणों में गिर गया। फिर वह उन्हीं के पास था| मैंने अपनी आंखों से देखा है। वह उम्र भर उनके चरणों में रहा, उनकी सेवा करता रहा। यह चौथा प्रकार है क्रोध का और यदि कोई आदमी मन में संकल्प कर ले, इरादा कर ले और अपने मन में विचार कर ले कि मैंने क्रोध पर विजय पानी ही है, क्रोध को ठीक ढंग से करना ही है, तो यह कठिन नहीं है|


मैंने आपको पहले भी सुनाया था बड़ी मीठी और बड़ी प्यारी सी घटना है। महर्षि दयानन्द के गुरुजी थे स्वामी बिरजानन्द जी। उन्हें आंखों से दिखाई नहीं देता था। वे प्रज्ञाचक्षु थे। लेकिन वे इतने महान पंडित थे, इतने महान पंडित थे कि संसार से ऐसा पंडित खोजना कठिन है| महर्षि दयानन्द उनके चरणों में बैठकर वेदों का स्वाध्याय करते थे। वो यमुना से बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस घड़े जल लाकर उन्हें स्नान कराते थे। रोज आश्रम में झाडू देते थे। उनके वस्त्र धोते थे। स्वयं भोजन बनाते थे\और उनके पांव दबाते थे। स्वामी बिरजानन्द की सेवा करने में दयानन्द इतने तन्मय थे कि उन्हें अपना ध्यान नहीं था, बिल्कुल नहीं था। उनका सर्वस्व थे मानों बिरजानन्द।


यहां एक बात ध्यान रखना कि आप किसी से अगर कुछ लेना चाहें, तो सेवा से ही ले सकते हैं। बिना सेवा के आपके हाथ में कुछ आएगा नहीं। जिस ढंग से आप प्राप्त करना चाहते हैं, यह ढंग बिल्कुल भी प्राप्त करने का नहीं है। इसीलिए जीरो रह जाते हैं आप। मांगते बहुत कुछ हैं, लेकिन हमारे पात्र में आता कुछ भी नहीं है। और आ भी जाए, तो ठहरता नहीं है।


दयानन्द वेदों के महान पंडित हुए हैं। लेकिन झाडू देते थे गुरु स्थान में। एक दिन स्वामी बिरजानन्द जी के पांव में एक कंकड़ चुभ गया। तो उन्होंने पूछा, दयानन्द, झाडू दिया। दयानन्द ने कहा, हां, झाडू तो दे दिया| हाथ पकड़ लिया उन्होंने और पैर में चुभा कंकड़ दिखाया। यह चुभ गया है, मुझे घाव हो गया है। यह कहने के बाद लगे उन्हें थप्पड़ मारने। दो, चार, दस थप्पड़ जड़ दिए। महर्षि दयानन्द ब्रह्मचारी थे। बहुत मज़बूत थे। हुष्ट-पुष्ट थे। उन्होंने कहा, गुरुदेव! हाथों में चोट लग रही होगी। पास में पड़ी हुई लाठी उनको दे दी। बोले, आपके हाथों से दयानन्द को कुछ नहीं होगा। यह बहुत कठोर है। इसीलिए उठाइए लाठी और मारिए इसे। देखा आपने कि गुरु क्रोध से भरा हुआ है और शिष्य शांत है बिल्कुल। जिस समय स्वामी दयानन्द जी ने यह बात स्वामी बिरजानन्द जी को कही, तो उनकी आंखों में आंसू आ गए। उनके हाथ-पांव ठंडे हो गए। उन्होंने दयानन्द को अपने गले से लगा लिया। वे पन्द्रह-बीस मिनट तक रोते ही रहे। बोले, दयानन्द! पता नहीं क्यों यह क्रोध आ ही जाता है। लेकिन इसके बाद उन्होंने एक वाक्य कहा, दयानन्द! इसके बाद क्रोध नहीं आएगा जीवन में बिरजानन्द को। सच्ची घटना है यह। फिर बिरजानन्द को कभी क्रोध नहीं आया। कभी-कभार जिन्दगी में कोई ऐसी घटना घटती है।


हमारे संकल्प बड़े कमजोर हैं। बड़े दुर्बल हैं हमारे संकल्प। दिन में दस बार हम संकल्प करते हैं, दस बार इरादे करते हैं, दस बार उन्हें तोड़ते हैं। न तो हमारा मन स्थिर है, न हमारी बुद्धि स्थिर है, न हमारे इरादे स्थिर हैं। घड़ी के पेंडुलम की तरह हमारा मन डोलता रहता है। हमारी बुद्धि डोलती रहती है। हमारे संकल्प में कोई बल ही नहीं है, शक्ति ही नहीं है हमारे संकल्प में|


स्वामी रामकृष्ण परमहंस के गुरु थे तोता पुरी। निर्वाण थे वह।बड़ी-बड़ी जटायें थीं और धूनी रमाते थे। गर्मी के दिनों में जब सूर्य तपता था, तो अपने चारों ओर अग्नि जलाकर साधना करते थे। इस प्रकार उन्होंने अपने सारे शरीर को तपाया था। ऊंचे दर्जे के तपस्वी थे वह। सर्दी के दिनों में जब भयंकर पाला गिरता था, तब वे पानी में खड़े रहते थे। एक बार एक बगीचे में ठहरे हुए थे। सर्दी के दिन थे। भयंकर सर्दी पड़ रही थीरामकृष्ण उनके पास चले गए। दोनों- गुरु और शिष्य परस्पर आत्मा की और परमात्मा की चर्चा कर रहे थे।


धूने की सारी आग बुझ गई थी। सुबह हुई। उस बगीचे का माली आया। बोला, महाराज! मैं चिलम पीता हूं। अगर इस धूने में कोई छोटा-मोटा अंगार है तो....। रामकृष्ण ने कहा, आग बुझ गई हैकोई अंगार नहीं है, किसी दूसरी जगह जाकर ले लो|माली ने कहा, महाराज देखो, कोई छोटा-मोटा अंगार तो मिल ही जाएगा। रामकृष्ण ने कहा, मैंने तुम्हें कहा कि दूसरी जगह से ले लो। धूने में अंगार नहीं है। वह माली बोला, अगर आप मुझे आज्ञा दें तो मैं ढूंढ लूं| माली बाहर अंगार खोज रहा है। और तोता पुरी के मन में अंगार जल रहे हैं। माली, तुम बाहर क्या अंगार की बात कर रहे हो। तोतापुरी गुस्से में लाल हो गए| पास में रखा चिमटा उठा लिया। माली को मारने के लिए दौड़े। माली भागा। जब वो वापस लौट रहे थे, तो रामकृष्ण को हंसी आ गई। देखो, जब किसी को क्रोध आया हो, तो हंसना मत। मार खा बैठोगे तब चुपचाप बैठ जाना। रामकृष्ण जब हंसने लगे, तो दो-चार चिमटे रामकृष्ण की पीठ पर जमा दिए तोतापुरी ने। चिल्लाए, 'दांत निकालता है, हंसता है।'  रामकृष्ण बोले, ऐसी कृपा तो किसी पर नहीं की होगी आपने। तोतापुरी ने कहा, 'आज के बाद तोता पुरी कभी क्रोध नहीं करेगा।' ऐसा ही हुआ फिर। उन्हें फिर कभी भी क्रोध नहीं आया। श्रीकृष्ण इसीलिए कह रहे हैं- अक्रोधः। बड़ी कठिन समस्या है यह क्रोध। कोई भी व्यक्ति हमारे पास आता है, तो यही शिकायत करता है कि क्रोध आ जाता है, गुस्सा आ जाता है|


क्यों? किसलिए? आता है, तो ठीक है, चला जाए। धीरे-धीरे देखो, यह क्रोध तुम्हारी आदत तो नहीं बन रहा। यह तुम्हारा स्वभाव तो नहीं बन रहा। इस बात को देख लो कि यह आज, कल, परसों अर्थात रोज़-रोज़ तो नहीं हो रहा। रोज-रोज़ जो क्रोध की आदत बन रही है, नेचर बन रही है, यह ठीक नहीं है। बिना क्रोध किए शान्ति ही नहीं है आपको| पत्नी से लड़ पड़े, पति से लड़ पड़े, बेटियों से लड़ पड़े, बहू से लड़ पड़े, लिफ्टमैन से लड़ पड़े, दरबारी से लड़ पड़े, ऑफिस के कर्मचारियों से लड़ पड़े। तो साधारण हो जाना, जिन्दगी है क्या यह आपकी। हर वक्त क्रोध के घोड़े पर चढ़े रहते हो। 


यह दैवी सम्पदा का बारहवां लक्षण है- अक्रोधः।


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