गीता सार (ध्यान योग)

ध्यान योग (अध्याय ६ )



इस अध्याय में श्री भगवान ने योगी के लक्षण बताये हैं और योगारुढ़ होने को कहा है। श्री भगवान कहते हैं, जो मनुष्य फल की इच्छा न रखकर, करने योग्य कर्म करता है, जो संकल्पों का त्याग करने वाला है, जो योग को प्राप्त करने में निष्काम भाव से कर्म करने वाला है, जो विषयों और भोगों से रहित है, और कर्मों में आसक्त नहीं है, वह सर्व संकल्पों का त्याग करने वाला मनुष्य योगी है। मनुष्य अपने द्वारा अपना उद्धार स्वयं करे और अपने को पतन के मार्ग में न डाले, क्योंकि मनुष्य आप ही अपना मित्र है, और आप ही अपना शत्रु है। जिसका मन इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है वह अपना मित्र है, और जिसने नहीं जीता है, वह अपने शत्रु के समान है|


इस अध्याय में श्री भगवान ने बताया है कि किस प्रकार से ध्यानस्थ होना चाहिये, इसके लिए कहा है- एकान्त स्थान में एकाग्र होकर आसन को स्थिर करके, (जो आसन सुविधाजनक हो) आसन न बहुत ऊंचा हो और न बहुत नीचा हो, चित्त और इन्द्रियों को वश में करके, अन्तःकरण की शुद्धि के लिए ध्यान योग में रत हों। सदा मन परमात्मा में ध्यानस्थ हुआ योगी परम निर्वाण की शान्ति को प्राप्त होता है।


श्री भगवान कहते हैं- हे अर्जुन यह योग न तो अधिक खाने वाले के लिए संभव है, और न ही बिल्कुल न खाने वाले के लिए संभव है। न अधिक सोने वाले का और न ही अधिक जागने वाले का सफल होता है|(इस तरह से श्री भगवान आहार, विहार और और सोने के लिए मध्यमार्ग बताया है)


योगयुक्त पुरुष सब में सर्वव्यापी परमात्मा को तथा परमात्मा में सब को देखने के कारण सर्व प्राणियों को समभाव से देखता है। श्री भगवान कहते हैं, जो पुरुष सर्वजीवों में सम देखता है और जो दु:ख सुख में सम है, वह योगी परमश्रेष्ठ है।


अर्जुन ने कहा- हे मधुसूदन, जो यह आपने समभाव का योग कहा है- मन चंचल होने के कारण, मैं उसकी अवस्था चिरस्थायी नहीं देखता हूं। मन को वश में करना पवन को रोकने या बांधने के समान अति कठिन है। श्री भगवान कहते हैं, यह सत्य है कि मन चंचल है  और कठिनाई से वश में होने वाला है। पर यह दो उपायों- अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है।


अर्जुन का प्रश्न है- भगवान जो मनुष्य श्रद्धालु हैं परन्तु संयमी न होने के कारण (अन्त समय में) योगमार्ग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक, योग की सिद्धि को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है?


श्री भगवान ने कहा, हे पार्थ ऐसे योगी को न तो इहलोक में और न ही परलोक में विनाश होता है। कोई भी कल्याणकारी और शुभ कर्म करने वाला, अवगति को प्राप्त नहीं होता है। ऐसा असफल योगी कर्मानुसार पुण्यकर्म करने वाले के लोकों को प्राप्त होता है और वहां यथायोग्य समय तक निवास करने के पश्चात अच्छे आचरण वालों, सदाचारी, धनवान, श्रीमंतो के घरों में जन्म लेता है। और जो वैराग्यवान है (वह दुर्लभ होता है) वह ज्ञानवान योगियों के परिवार में जन्म लेते हैं। श्रीमंतों के घरों में जन्म लेने वाले पुरुष अपने पूर्व अभ्यास के कारण परमात्मा की ओर सहज आकर्षित होते हैं। और वैराग्यवान योगी (जो ज्ञानी योगियों के परिवार में जन्म लेते हैं) अपने अनेक जन्मों की संस्कार शक्ति से पूर्णतया शुद्ध होते हुए, परमगति को प्राप्त होते हैं। (इस तरह से श्री भगवान का आश्वासन है कि कोई भी कल्याणकारी और शुभकर्म करने वाला पुरुष, लक्ष्य के प्राप्त होने से पूर्व ही, असमय अन्तकाल को प्राप्त होता है, तो भी उसकी साधना व्यर्थ नहीं जाती। उसकी आध्यात्मिक यात्रा अगले जन्म में वहां से आरम्भ होगी, जहां से उसके द्वारा पूर्वजन्म में छूट गई थी। इस प्रकार श्री भगवान पुनर्जन्म को पुनः पुष्ट करते हैं।) श्री भगवान ने योगी को सबसे श्रेष्ठ माना है पर श्रद्धावान योगी जो परमात्मा की उपासना में निरन्तर संलग्न है, को अति श्रेष्ठ माना है।


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