गीता सार (कर्मसंन्यास योग)
पांचवें अध्याय का सार इस प्रकार है:
अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में श्री भगवान ने कहाः कर्मसन्यास और कर्मयोग दोनों ही परम कल्याणकारी है| परन्तु कर्मयोग अभ्यास में सुविधाजनक होने के कारण उत्तम योग है। श्री भगवान इसके उपरान्त कहते हैं कि दोनों का ध्येय और लक्ष्य एक ही है। जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक ही देखता है वह यथार्थ और सत्य देखता है। जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न ही किसी से आकांक्षा (अपेक्षा) रखता है वह ज्ञानी नित्य सन्यासी समझने जैसा है क्योंकि राग द्वेष आदि द्वन्द्वों से विहीन मनुष्य सहज ही कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है।
मन जिसके वश में है, ऐसा ज्ञानयोग का मनन करने वाला पुरुष, न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नव द्वारों वाले शरीर रूपी घर में सर्व कर्मों को मन से त्याग कर ईश्वर के स्वरूप में स्थिर रहता है।
जो मनुष्य सर्व कर्मों को ईश्वर के अर्पण करता है और आसक्ति रहित कर्म करता है वह पुरुष - जल में कमल के पत्ते की तरह पाप में लिप्त नहीं होता है। कर्मों में युक्त कर्मफल को त्याग करने वाला मनुष्य शान्ति कोप्राप्त होता है और सकाम कर्म करने वाला मनुष्य कामना से प्रेरित फल में आसक्त होकर कर्म बंधन में बंधता है। मन जिसके वश में है, ऐसा ज्ञानयोग का मनन करने वाला पुरुष, न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नव द्वारों वाले शरीर रूपी घर में सर्व कर्मों को मन से त्याग कर ईश्वर के स्वरूप में स्थिर रहता है|
सर्वव्यापक प्रभु न किसी के पापकर्म का और न किसी के पुण्यकर्म का भागी होता है, परन्तु अज्ञान के कारण ज्ञान ढका हुआ है, और उसी अज्ञान से मनुष्य मोहित हो रहे हैं, परन्तु ईश्वर के तत्वज्ञान द्वारा जिनका अज्ञान नष्ट हो गया है उनका वह ज्ञान सूर्य के समान प्रकाशमय होकर परम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होता है।
ऐसे ज्ञानीजन, विद्या द्वारा सम्पन्न हुए ब्राह्मण में तथा गाय, हाथी, श्वान और चाण्डाल में समदर्शी होते हैं (अर्थात वे ज्ञानीजन सर्व जीवों में प्रभु का दर्शन करते हैं।) जिस प्राणी के सर्व पाप समाप्त हो गये हैं, जिसकी सब शंकायें ज्ञान के द्वारा शान्त हो गई हैं, जो सर्व प्राणियों के कल्याण में रत है, और जिनका जीता हुआ मन परमात्मा के निर्मल भाव में स्थित है, ऐसे पुरुष ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
जो विषयों के चिन्तन से अछूता है और भ्रिकुटी के मध्य स्थित प्राण और अपान वायु को सम करके जिसकी इन्द्रियां, मन और बद्धि वश में हैं, ऐसा मोक्ष परायण पुरुष, कामना, भय और क्रोध से सर्वदा रहित हो गया है। वह मुनि सदैव मुक्त है। मेरा भक्त मुझे सर्व लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर एवं यज्ञों और तपों का भोक्ता तथा सर्व दयाल ऐसा जान लेता है, वह भूतों का करुणामयी अर्थात परम शान्ति को प्राप्त होता है।