नारी सौन्दर्य


किसी भी वस्तु विशेष की सुन्दरता का वर्णन करते समय सर्वप्रथम जो बात दृष्टि में आती है वह है उस वस्तु की बाह्य सुन्दरता अर्थात उसका आकार-प्रकार, डील-डौल तथा रंग-रूप आदि। ठीक इसी प्रकार नारी की सुन्दरता का वर्णन करते समय हम सबसे पहले उसके बाह्य सौन्दर्य की ओर आकृष्ट होते हैं| उसके शरीर की बनावट तथा सजावट को ध्यान में रखते हुए उसको सुन्दरता की कसौटी पर कसते हैं। किन्तु शीघ्र ही हमारा ध्यान इस ओर से हट कर उसके स्वाभाविक गुणों पर जा अटकता है| तात्पर्य यह कि सौन्दर्य किसी एक वस्तु का नाम नहीं; अपितु मनोविज्ञान के आधार पर इसके तीन अंग माने गये हैं।


1. बाह्य सौन्दर्य


2. आंतरिक सौन्दर्य


3. व्यवहारिक सौन्दर्य सुन्दर


, सुगठित तथा स्वस्थ – शरीर, बड़ी-बड़ी गोल सी भावपूर्ण आंखें, गुलाब की पंखुड़ियों से पतले-पतले होंठ, श्वेत मुक्तामल सी दन्त पंक्ति तथा निखरा हुआ गोरा-चिट्टा रंग बाह्य सौन्दर्य का द्योतक है। प्रायः इन गुणों की स्वामिनी प्रथम-दृष्टि में ही दूसरों के हृदय में सहज ही स्थान प्राप्त कर लेती है। इस सौन्दर्य को स्थाई रूप से बनाये रखने के लिए जिस वस्तु की अत्यधिक आवश्यकता है वह है उत्तम स्वास्थ्य और स्वास्थ्य का अच्छा होना, खान-पान, रहन और सहन तथा आचार-विचार पर निर्भर है|


जहां 'बाह्य सौन्दर्य' जीवन में सफलता की प्रथम सीढ़ी है वहां "आंतरिक सौन्दर्य" का स्थान उससे भी बढ़कर माना गया है। यहां तक कि इसके बिना बाह्य सौन्दर्य ठीक उसी प्रकार फीका और नीरस है जिस प्रकार बिना सुगंध के कागज़ के फूल।


दया, ममता, शील तथा स्नेह आदि की मात्रा जिस नारी में जितनी ही अधिक होगी वास्तव में वह उतनी ही अधिक सुन्दर होगी।


सौन्दर्य का तीसरा अंग है व्यावहारिक सौन्दर्य। इस के अंतर्गत हमारा उठना-बैठना, चलना-फिरना, दूसरे व्यक्ति से बातचीत करना इत्यादि सम्मिलित है।


सौन्दर्य के इस अंग की पूर्ति के लिए नारी जगत का शिक्षित होना अत्यावश्यक है। उचित ढंग से शिक्षा ग्रहण करने से हम बहुत सी ऐसी सीखने योग्य बातें जान पाते हैं जिनसे अशिक्षित वर्ग अनभिज्ञ ही रह जाता है।


व्यवहार में सभ्यता, वाणी में लावण्य, चेहरे पर मुस्कुराहट, तथा आंखों में लज्जा का आवरण नारी के सौन्दर्य को चार-चांद लगा देते हैं। आंतरिक तथा व्यवहारिक सौन्दर्य के बिना नारी का बाह्य स्वरूप सुन्दर होने पर भी भयंकर नाग की भान्ति विषैला ही हो सकता है