सृष्टि की उत्पत्ति

शंका समाधान



प्रश्न- पश्चिमी दार्शनिकों का मत है कि दुनिया खुदा ने किसी विशेष समय पर बनाई, परन्तु हिन्दू दार्शनिकों का कहना है कि इसका कोई आदि नहीं। यह सदा ही से इसी तरह चली आ रही है। ऐतिहासिक दृष्टि से पश्चिमी दार्शनिकों का मत उचित जान पड़ता है क्योंकि सबसे पहले मनुष्य जंगली जानवरों की तरह था। न खाने का पता, न पहनने का, न ही सामाजिक जीवन बसर करता था। धीरे 10 -धीरे मनुष्य ने स्वयं ही उन्नति की और आज का व्यक्ति एक उन्नत व्यक्ति कहलाता है। आप इस प्रश्न पर प्रकाश डाल कर कृपा करें। (आर.एल. कपूर)


उत्तर- पड़े भटकते हैं लाखों पण्डित,हजारों दानी, करोड़ों सयाने, जो खूब देखा हमने तो यारो, खुदा की बातें खुदा ही जाने।


वैदिक धर्म की पुस्तकों के संसार की उत्पत्ति का इस तरह वर्णन करती हैं कि ईश्वर ने जब यह संकल्प किया कि एकोहम् बहूस्याम अर्थात मैं एक हूं अनेक हो जाऊँ वो इस संसार को बनने में एक पल भी न लगा । जैसे स्वप्रावी पुरुष से स्वप्न के पदार्थ संकल्प मात्र में जन जाते हैं और इससे अलग कोई सत्ता भी नहीं रखते, उसी तरह ईश्वर से माया (प्रकृति) कोई पृथक् सत्ता नहीं रखते। जैसे पुरुष की शक्ति पुरुष से अभिन्न नहीं होती, पर काम भिन्न करके दिखलाती है, इसी तरह ईश्वर ही संसार रूप में प्रकट हुआ है, हो रहा है और होता रहेगा|


इसलिए यह प्रश्न कि यह संसार कैसे बना वस्तुतः बन ही नहीं सकता, जैसे स्वप्न की स्त्री पर यह प्रश्न करना कि यह कहां से आई। इसका बेटा कितनी आयु का है- आदि प्रश्न व्यर्थ है। ब्रह्म ज्ञान होने पर इस संसार का नामो-निशान ही नहीं रहता। अर्थात यह संसार ब्रह्म रूप ही दिखाई देता है। जिसका न आदि है न अन्त, जो सदा एकरस नित्य है, उसी में इन नाम रूप जगत् का भ्रम हो रहा है। यह संसार कैसे बना और कब बना- ये प्रश्न वस्तुतः अज्ञान का परिचय देते हैं क्योंकि ज्ञान की पाँचवीं भूमिका पर पहुंचने पर केवल जल ही ब्रह्मा मानता है। द्वैत रूप संसार, जो अज्ञान अवस्था में प्रत्यक्ष दिखाई देता था वह ऐसे अदृश्य हो जाता है जैसे जागने पर स्वप्न में रचे हुए समस्त पदार्थ। आत्म पुराण के दूसरे अध्याय में इन प्रश्नों का उत्तर अच्छी तरह दिया गया हैं जो हम उत्तर अच्छी तरह दिया गया हैं जो हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं- जीवों के पुण्य-पाप रूपी कर्मों से युक्त हुआ मायावशिष्ट परमात्मा भूत-भौतिक रूप प्रपंच को उत्पन्न करता. पालन करता और संहार करता है। यदि कर्मों के बिना ही सृष्टि की उत्पत्ति मानी जाए तो परमात्मा अन्यायकारी माना जाएगा क्योंकि कोई अमीर है कोई गरीब और कोई दुखी है तो कोई सुखी। एक भी अवस्था में संसार का चक्र ही भोगना पड़ेगा। दूसरे उसके ऐश्वर्य और भोग-विलास तो उसे नरक की ओर ले जा रहे है। ईश्वर की कृपा किसी को तनकी ओर नहीं ले जाती। ईश्वर की कृपा आत्मिक ज्ञान की ओ ही ले जाने वली होती है। यह कृपा ही जिज्ञासु के मार्ग के विघ्नों को दूर करती है। ईश्वर की इस कृपा को उसका प्रसाद कहा जाता हैभगवान कृष्ण ने गीता में कहा है:


मलिचत्ता सर्व दुर्गणिख् मत प्रसादात तृषसि अर्थात मुझ में चित्र लगाए हुए, मेरे प्रसाद से सब विघ्नों को पार कर जाएगागुरू नानक जी ने भी अपनी बाणी में प्रसाद शब्द ही प्रयोग किया है एक ओंकार सतगुरू प्रसाद। ईश्वर का यह प्रसाद ही उसका अनुग्रह या विशेष कृपा है। जिसके बिना आत्मज्ञान नहीं मिल सकता। और यह उस सच्चे जिज्ञासु को मिलता है जिसके मन में विषयों से वैराग हो कर ईश्वर प्राप्ति और मोक्ष के लिए प्रबल इच्छा, तड़प पैदा हो गई है जो ईश्वर से दिन-रात वह सब दुनियावी कार्यों से इस ज्ञान को अधिक आवश्यक समझे और इसकी प्राप्ति के लिए हर संभव प्रयत्न करे।


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