आत्मज्ञान में स्थिति का उपाय बताएं
शंका समाधान
प्रश्न - जैसे समुद्र के अंदर लहरें उठती हैं, उसी तरह मन में संकल्प उठते हैं। इनको वश में करना सचमुच हवा को मुट्ठी में बंद करना है। ज्ञान दृष्टि से देखा जाए तो मेरा (मुझ आत्मा का) इस मन से कुछ संबंध नहीं, क्योंकि मैं इस मन का साक्षी हूं अर्थात् अच्छे-बुरे सभी विचारों के उठने को देखनेवाला हूं। इसलिए मैं मन से न्यारा हूं। इसी तरह विचार करने पर मन वश में आता है और आनंद का अनुभव होता है। परंतु यह अवस्था सदा एकरस नहीं रहती, इसका क्या कारण है? और इस ज्ञानरूपी अवस्था को बनाए रखने का क्या उपाय है? ( मेहर चन्द)
उत्तर- प्रकृति के तीन गुण हैं- सत्, रज और तम्। जिस अवस्था की आपने बात की है, वह परम सतोगुण का फल है। जड़ और दु:ख रूप है| हमने असत् को छोड़ना है और सत् को ग्रहण करना है। साईं अनायत शाह अपने शागिर्द बुल्लेशाह को कहते हैं- 'बुल्लया रब दा की पावना, ऐदरों पुटना ते ओदर लावना' दृश्य जगत् से ध्यान हटाकर द्रष्टा आत्मा की ओर ध्यान लगाना- बस यही एक काम है जो आत्मजिज्ञासु को हमेशा करते रहना है। द्रष्टा और दृश्य दोनों इस तरह आपस में मिले हुए हैं उनका विवेक करना अर्थात् उन्हें पृथक-पृथक करना आवश्यक भी है और कठिन भी। जैसे दूध और जल मिले हों तो हंस उन्हें पृथक कर जल छोड़ देता है और दूध ग्रहण कर लेता है, उसी तरह आत्मजिज्ञासु को द्रष्टा और दृश्य का विवेक कर दृश्य जगत को छोड़ देना (उससे स्वयं को अलग कर लेना) चाहिए और द्रष्टा आत्मा को अपनाना (अपना आप समझना) चाहिए। यही वह रहस्य है जिसकी सभी वेदशास्त्र और महात्मा कई प्रकार से व्याख्या करते हैं।
एक संत मस्ताना जी थे| उनके मुंह पर सदा यही शब्द रहते थे- 'इक नुक्ते विच गल मुकदी ए, इक नुक्ते विच'। जो भी उनके पास उपदेश लेने जाता था वो उससे यही कहते कि एक रहस्य है, उसकी पहचान करो। वह रहस्य क्या है?- आत्मा-द्रष्टा! जो सबको देखता है परंतु स्वयं किसी से देखा नहीं जाता। जिसके होने से कान सुनते हैं पर जो कानों से सुना नहीं जाता, जिसके होने से जिह्वा चख सकती है पर जो चखा नहीं जा सकता, जिसके होने से मन संकल्प करता है पर जिसे मन नहीं जानता, जिसके होने से बुद्धि सोच-विचार करती है पर उस तक बुद्धि की पहुंच नहीं, जिसके होने से शरीर की सब इंद्रियां अपना-अपना काम करती हैं और उसके चले जाने पर (उसका अभाव होने पर) कोई काम नहीं कर सकतीं- ऐसे चेतन देव आत्मा को, जो आपका अपना आप है, द्रष्टा रूप जानकर उसका ही श्रवण, उसका ही मनन और उसका ही निदिध्यासन करना चाहिएजब तक सर्व आत्म रूप दृष्टि अर्थात् 'सर्वंखल्विदं ब्रह्म' का अभ्यास पूर्ण न हो जाए, तब तक आत्मचिंतन का अभ्यास करते रहना चाहिए। फिर इस ब्रह्माकार वृत्ति का प्रवाह तेल की धारा की भांति समरूप से चलता रहेगा और प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। परंतु शुरू शुरू में इस ब्रह्माकार वृत्ति को बनाना और इसे स्थिर रखना कठिन काम है और इसका उपाय यह है कि सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर शौच आदि क्रियाकर्म से निवृत होकर स्नान करके एकांत स्थान में सिद्ध आसन लगा कर बैठ जाए। संसार को मिथ्या मानकर बाहर के दृश्य जगत् को भुलाने का प्रयत्न करे| यही समझे कि कुछ है ही नहीं और आंखें बंद करके यह ख्याल करे कि यह स्थूल देह मेरे साथ नहीं, बल्कि मैं आकाश की तरह व्यापक हूं।
फिर प्राणों की किया अर्थात् सांसों के अंदर-बाहर जाने को भी अपने से भिन्न समझे। और स्वयं को उनका द्रष्टा महसूस करे। इस तरह करने से इंद्रियों की बहिर्मुख वित्तियां शांत हो जाएंगी और मन अंतर्मुख हो जाएगा। अब मन में कोई सूक्ष्म संकल्प उठा तो उसका भी स्वयं को द्रष्टा ही माने।
अर्थात् मन से भी स्वयं को पृथक् करने और सब संकल्प-विकल्पों को साक्षी होकर देखे| अब वैसे तो कोई संकल्प उठेगा ही नहीं, यदि उठे तो विचार करे कि यह किस समुद्र से सकल्प - विकल्प रूपी लहरें उठती या उठती हैं इस तरह विचार करते-करते सकल्प - विकल्प उठने बंद हो जाएंगे। दृश्य जगत् की समाप्ति हो जाएगी और जब दृश्य ही नहीं होगा, द्रष्टा भी नहीं रहेगा। क्योंकि इस दृश्य के कारण ही हमने इस चेतन को द्रष्टा का नाम दिया था। अन्यथा यह तो नाम रूप से परे है। अब चेतन ही चेतन रह जाएगा जो कि सत्, चित्, आनंद रूप है। बस अब आनंद ही आनंद का समुद्र लहराएगा! यही समाधि की अवस्था है। जब ज्ञानवान् का इससे उत्थान होगा, तब भी इसको अपने स्वरूप का ज्ञान बना रहेगा। फिर यह काम करता हुआ भी अकर्ता रहेगा, अर्थात् देखता, सुनता, चलता शरीर की सभी कियाएं करता हुआ भी शरीर के धर्मों से लिपायमान नहीं होगा। यही जीवन का मुख्य लक्ष्य है और यही अंतिम अवस्था है|
यहां न जीव रहता है, न ईश्वर ,बस चेतन ही चेतन रहता है। यही ब्रह्म का साक्षात्कार है।