गीता में दैवी सम्पद् -पत्थर पर नहीं पानी पर लकीर
आज से चालीस वर्ष पहले की बात कह रहा हूँ। मैं गया में था। एक करोड़पति स्त्री रोज मेरे पास आया करती थी। उसने बताया, महाराज मेरे पति को मरे हुए बीस वर्ष हो गए। जब उनकी मृत्यु हुई तो वे अपने पीछे बीस लाख रुपए छोड़ गए थे। उन्होंने कहा था कि उन पैसों से एक मंदिर बनवा देना, एक धर्मशाला बनवा देना और मेरे लिए श्रीमद्भागवत सप्ताह करवा देना | मेरे बेटों ने ये तीनों काम नहीं करवाए| जब मैं उनसे कहती हूँ कि ऐसा करो, तो वे कहते हैं कि पिता का तो दिमाग खराब हो गया था। पागल हो गए थे वो। इन बातों में रखा क्या है। सारा पैसा उन्होंने बिजनेस में लगा लिया है। एक कौड़ी भी बची नहीं है। हर दिन उनकी और मेरी यह लड़ाई रहती है, यही झगड़ा रहता है। ब्याज तक का भी वे इस्तेमाल कर रहे हैं |
सोचो जरा, पिता त्याग नहीं कर सकता, तो बेटे त्याग कर देंगे क्या? बावरी बातें करते हो। मुझे तो आश्चर्य तब हुआ जब वह कहने लगी कि मेरे पास जो सोना है, हीरे-जवाहरात हैं, वह अपनी बेटियों को देकर जाऊंगी। उन्हें कहूंगी कि मेरे बाद मंदिर-धर्मशाला बनवा देना और भागवत सप्ताह करवा देना। मैंने कहा, जो गलती तुम्हारे पति ने की, वही गलती तुम भी करने जा रही हो| तुम्हारी बेटियां मंदिर बनवाएंगी? तुम्हारी बेटियां धर्मशाला बनवाएंगी? वह तुम्हारे निमित्त श्रीमद्भागवत सप्ताह कराएंगी? अरे बावरो, तुमसे तो त्याग होता नहीं है, तुम दूसरों से अपेक्षा करते हो कि वह त्याग करेगा। स्वयं तो अभी मुट्ठी को बांधे हुए बैठे हो और दूसरों के बारे में सोचते हो कि वह तुम्हारे बाद अपनी मुट्ठी खोलेगा। क्या होने वाला है और क्या नहीं होने वाला है, इसकी क्या गारंटी है|
त्यागः तो त्याग का अर्थ है जिन व्यक्तियों के साथ, जिन पदार्थों के साथ हमने मैं और मेरा जोड़ लिया है, उनका त्याग। व्यक्तियों और पदार्थों से जो तुम्हारा मोह है- मैं और मेरा के सम्बन्धों की वजह से, उन्हें खींच लो, बस हो गया त्याग। अरे बावरो, मुंबई में कितने लोग आते हैं और मुंबई से कितने लोग बाहर जाते हैं। उनके आने से तुम्हें सुख या उनके जाने से कभी तुम्हें दुख होता है क्या? लेकिन हमारा अपना जाने वाला हो, तो हमारी भूख-प्यास मर जाती है या कोई आने वाला हो, तो हमें खुशी हो जाती है। मुंबई में कितने लोगों का जन्म होता है, तुम्हें कोई खुशी हुई है क्या और कितने लोगों की मृत्यु हुई है, तुम्हें क्या कोई दु:ख हुआ है? कोई दु:ख हुआ है? अपना कोई जन्मता है तो तो तुम्हें सुख होता है, तुम्हारा कोई मरता है, तो तुम्हें दुख होता है| इसीलिए श्रीकृष्ण कहते हैं, त्याग का अर्थ है, इस मैं और मेरेपन को खींच लो| एक बात का ध्यान रखना, यदि समझ-बूझकर करोगे, तभी त्याग होगा, यदि बिना समझ के करोगे, तो त्याग नहीं होगा। भाई, सचमुच में ही हमने समझ लिया कि यह त्याग है, तो आप जो त्यागेंगे, उससे आपको दु:ख नहीं होगा, कष्ट नहीं होगा|
एक छोटी सी घटना सुना रहा हूं चैतन्य महाप्रभु की। चैतन्य महाप्रभु उस समय गृहस्थ में थे। नाम था उस समय इनका निमाई पंडित। एक दिन ये सुबह नौका में बैठे हुए जा रहे थे। इनके हाथ में उस समय एक अनूठा और अद्भुत ग्रंथ था न्याय शास्त्र का। ऐसा अद्भुत और अनूठा ग्रंथ जिसे हजारों वर्षों बाद कोई अपनी प्रतिभा से लिखता है। चैतन्य महाप्रभु में इतनी प्रतिभा थी, इतनी प्रज्ञा थी कि सारे विश्व के वैज्ञानिक मिलकर भी उनका मुकाबला नहीं कर सकेंगे- इतनी प्रज्ञा, इतनी प्रतिभा थी उनमें। उन्होंने उस ग्रंथ को लिखा था। उस समय उनके हाथ में था वह ग्रंथ। नौका में बैठे जा रहे थे और उनके साथ ही बैठे थे उनके मित्र, उनके दोस्त, उनके साथी पंडित रघुनाथ। एक ही उम्र के थे दोनों। जब नौका चल पड़ी और गंगा के बीच में गई, तो रघुनाथ पंडित ने पूछा कि यह पुस्तक कौन सी है तुम्हारे हाथ में।
तब निमाई ने बताया कि यह न्याय की पुस्तक है, पांडुलिपि है, जिसे मैंने लिखा है| रघुनाथ ने कहा, जरा सुनाओ तो सही। जब निमाई उसे सुनाने लगे, तो रघुनाथ पंडित के चेहरे पर उदासी आ गई| ऐसा लगने लगा कि उनके कलेजे में छुरी लग रही है| निमाई ने देखा नहीं था उन्हें ऐसा कभी| एकदम उदास और निराश हो गए पंडित रघुनाथ। जब निमाई ने उनकी ओर देखा, तो वे बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोने लगे उन्होंने पुस्तक बंद कर दी। बोले, अरे यह क्या हुआ? उसने कहा, मित्र! इसी विषय पर मैंने भी पुस्तक लिखी है। जो तुम्हारी पुस्तक के सामने दो कौड़ी की है। यदि तुम्हारी यह पुस्तक छप गई, तो मेरी पुस्तक को कौन देखेगा, कौन पूछेगा। इसी दुख और क्लेश की वजह से मैं रो रहा हूं। चैतन्य महाप्रभु ने कहा, बस! इतनी छोटी सी बात के लिए रो रहे हो? उन्होंने अपनी पुस्तक को उठाकर गंगा की लहरों में फेंक दिया। पुस्तक के पन्ने गंगा की लहरों में बिखर गएऔर डूब गए उसमें। रघुनाथ पंडित ने कहा, यह क्या किया? इतनी महान पुस्तक को फेंक दिया? निमाई ने कहा, अरे रघुनाथ! इस संसार में महान कुछ भी नहीं है। यह केवल शब्दों का जाल है और कुछ भी नहीं है। सत्य तो केवल परमात्मा का नाम हैऔर फिर मेरे मित्र के मन को जो पुस्तक पीड़ा पहुंचाती है, दुख पहुंचाती है, आंसू निकालती है उसके, ऐसी पुस्तक को लेकर मैं क्या करुंगामित्र तुम्हारी प्रसन्नता के लिए मैं ऐसी हजारों पुस्तकें गंगा में फेंक दूं
यह त्याग है। यह जानबूझ कर किया हुआ त्याग हैयह ऐसा-वैसा त्याग नहीं है। ऐसी अद्भुत अनूठी पुस्तक यदि हमारे पास होती, तो भारत की बुद्धि का, प्रज्ञा का खजाना आज न जाने क्या होता| इसीलिए श्रीकृष्ण कहते हैं, त्याग करना हो, तो सोचकर, समझकर और विचार कर करना। त्याग की भावना के मूल में यह बात रहती है कि यह वस्तु मेरी नहीं है, प्रभु की है, उस पर मैंने कब्जा जमा लिया था, यह परमात्मा की है। हम कहते हैं- त्वदीयं वस्तु गोविदं तुभ्यमेव समर्पयेत्। हे प्रभु, तुम्हारी वस्तु मैं तुम्हें दे रहा हूं। यह तो मैंने बेईमानी कर रखी थी|