मूल्यों का संवर्धन आज की जरूरत
सर्वप्रथम आप सभी सुधी पाठकों को कार्तिक माह की हार्दिक बधाई। इस बार अधिकमास रहा इसलिए पर्व-त्योहार थोड़ी देर से आएं। हालांकि कोरोना-काल में पर्व-त्योहार मनाने की अपनी सीमाएं हैं। लेकिन आंतरिक शुद्धिकरण की अनंत सीमाएं हैं। आध्यात्मिक विकास के लिए यह सबसे जरूरी तत्व है। मेरा निजी मत है कि आधुनिक जीवनशैली में इसके लिए ज्ञान-मार्ग सबसे सही विकल्प है। किसी गुफा, कंदरा में जाने की जरूरत नहीं है। गृहस्थ आश्रम में रहते हुए हमें बस इतना करना है कि स्वयं एवं बच्चों को मूल्य-आधारित शिक्षा दें। कहते हैं कि जब-जब प्रलय आता है तो जीवन-मूल्यों को ही बीज रूप में बचाया जाता है। फिर सृष्टि के अगले प्रकट स्वरूप में वही बीज मानव जीवन को पोषित-पल्लवित करते हैं। हमारे पूज्य पिताश्री बह्मानंद नंदा जी रसाले के अंकों में इसी बात की पैरवी करते रहे हैं। वह हमेशा कहते आए हैं कि ज्ञान मार्ग पर रहते हुए, गृहस्थ आश्रम व्यतीत करते हुए ईश्वर-भक्ति में लीन रहना। हम अक्सर कहते-सुनते आए हैं कि फलां संत का प्रवचन सुनने से मन शांत हो जाता है और ईश्वर-भक्ति की ओर प्रवृत्त होता है। लेकिन मेरा मत है कि यह जिम्मेदारी अकेले संतों की क्यों? हम गृहस्थों की क्यों नहीं? पूज्य पिताश्री बह्मानंद नंदा जी एवं दादाश्री गोरखनाथ नंदा जी के जीवन-मूल्यों की विरासत को संभालने के क्रम में मेरा निजी अनुभव है कि जीवन में नैतिक शिक्षा एवं थोडे उच्च आदर्शों को शामिल किया जाए तो गृहस्थ आश्रम छोड़ संन्यास ग्रहण करने की जरूरत नहीं।
'ओम्' पत्रिका इस समय अपनी 85वीं वर्षगांठ मना रही है तो यह आप सुधी पाठकों के प्यार एवं आशीर्वाद का प्रताप है। श्री गोरखनाथ नंदाजी एवं श्री बह्मानंद नंदा जी के सुयोग्य हाथों से होती हुई तीसरी पीढ़ी में आपकी यह पसंदीदा पत्रिका 'ओम्' मेरे संपादकत्व में प्रकाशित हो रही है। मेरा प्रयास रहता है कि पत्रिका में ऐसे आलेखों का प्रकाशन करूं, जो जीवन-मूल्यों को बढ़ाए। क्योंकि मूल्य ही वह आधार हैं, जिन पर सृष्टि टिकी है। इस पितृ पक्ष में मैंने अपने पितरों को याद किया क्योंकि उनके आशीर्वाद के बिना 'ओम्' का प्रकाशन असंभव होता। जीवन-मूल्यों के लिए पितरों को याद करना बहुत जरूरी है, उनकी सीख, उनकी विरासत को आत्मसात कर अगली पीढ़ी को सौंपना बहुत जरूरी है। हरी ॐ !